Wednesday, January 27, 2016

श्रीराम की दिव्यता

रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे |
रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः ||
रामं रामानुजं सीतां भरतं भरतानुजं |
सुग्रीवं वायुसूनुं च प्रणमामि पुनः पुनः ||
वेदवेद्ये परे पुंसि जाते दशरथात्मजे |
वेदः प्राचेतसादासीत् साक्षाद् रामायाणात्मना ||
वेदों में  जिस परमतत्व का वर्णन किया गया है वही श्रीमन्नारायणतत्व श्रीमद्रामायण में श्रीराम रूप से निरूपित है । श्रीराम के दशरथनन्दन के रूप में अवतीर्ण होने पर साक्षाद् वेद ही श्रीवाल्मीकि के मुख से श्रीरामायण रूप से प्रकट हुए हैं । सभी श्रद्धेय  जनों की ऐसी मान्यता है । वाल्मीकि रामायण की प्रतिष्ठा भी वेद तुल्य ही है । महर्षि वालमीकि आदि कवि हैं ,तथा कवियों के गुरु भी । उनका आदिकाव्य वाल्मीकि रामायण भूतल का प्रथम काव्य है । रामायण का एक एक अक्षर महाताप का नाश करने वाला है -
एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम् ।
यह समस्त काव्यों  का बीज है -
काव्यबीजं सनातनम् । 
वाल्मीकि रामायण में श्रीराम की दिव्यता तथा परब्रह्मता  सर्वत्र दिखाई देती है । गम्भीर चिंतन के बाद तो प्रत्येक श्लोक हैं श्रीराम की अचिन्त्य शक्तिमत्ता ,लोकोत्तर धर्मप्रियता ,आश्रितवत्सलता एवं ईश्वरता का प्रतिपादक जान पड़ता है । विभीषण शरणागति के समय यदयपि कोई भी ऐश्वर्य प्रदर्शकवचन नहीं आया ,परन्तु श्रीराम के आतिथ्यसत्कार के उदाहरण देने ,परमर्षि कन्दुकि गाथा पढने एवं अपने शरण में आये समस्त प्राणियों को समस्त प्राणियों से अभयदान  देने के स्वाभाविक नियम को घोषित करने के बाद प्रतिवादी सुग्रीव को विवश होकर कहना ही पड़ा कि 'धर्मज्ञ !लोकनाथों  के शिरोमणि ! आपके इस कथन में कोई आश्चर्य नहीं है ;क्योंकि आप महान शक्तिशाली एवं सतपथ पर आरुढ  हैं -
किमत्र चित्रं धर्मज्ञ लोकनाथशिखामणे ।
 यत् तवमार्यं प्रभाषेथाः सत्ववान् सतपथेस्थितः ||(६. ८. ३६)
इसी प्रकार हनुमानजी ने सीताजी के सामने और रावण के सामने जो श्रीराम के गुण  कहे हैं ,उनमे उन्हें ईश्वर तो नहीं बतलाया किन्तु श्रीराम में यह सामर्थ्य है की वे एक ही क्षण में समस्त स्थावरजङ्गात्मक विश्व को संहृत कर दूसरे ही क्षण पुनः ही इस संसार का ज्यों   का त्यों  निर्माण कर सकते हैं'
इस कथन में श्रीराम की ईश्वरता का भाव स्पष्ट है -
सत्यं राक्षसराजेन्द्र श्रणुष्व वचनं मम |
रामदासस्य दूतस्य वानरस्य विशेषतः ||
सर्वाँल्लोकान्   सुसंहृत्य  सभूतवान् सचराचरान् |
पुनरेव तथा स्रष्टुं शक्तो रामो महायशाः ||(वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड ५१. ३८-३९ )








सीता स्वयंवर

क्या इस तरह से हमारे धर्मग्रंथों में जो लिखा है उसे तोड़ मरोड़ कर दिखाना उचित है । वाल्मीकि रामायण में तो(सीता स्वयंवर) ऐसी सभा का वर्णन है ही नहीं ,जैसी आजकल प्रसारित हो रहे 'सिया के राम
(SIYA  KE  RAM ) में दिखाई गई । आज की पीढ़ी जब इन धार्मिक कथाओं को देखती है तो वह इसे ही सत्य मानती है (जो की परिवर्तित करके दिखाया जा रहा है) । वाल्मीकिरामायण के बालकाण्ड के ६६ वे सर्ग में जब विश्वामित्र हजारों वर्षों की तपस्या के पश्चात् राजा जनक का आमंत्रण पाकर श्री राम और लक्ष्मण  सहित जनक के महल में जाते हैं । तब विश्वामित्र  राजा  जनक से कहते हैं कि -
पुत्रौ दशरथस्येमौ क्षत्रियौ लोकविश्रुतौ । 
द्रष्टुकामौ  धनुःश्रेष्ठं यदेतत्वयि तिष्ठति ॥ 
एतद् दर्शय भद्रं ते कृतकामौ नृपात्मजौ । 
दर्शनादस्य धनुषो  यथेष्टं प्रतियास्यतः ॥ (५-६ )
अर्थात 'महाराज ! राजा दशरथ के ये दोनों पुत्र विश्वविख्यात क्षत्रिय वीर हैं और आपके यहाँ जो श्रेष्ठ धनुष रखा है ,उसे देखने की इच्छा रखते हैं । आपका कल्याण हो ,वह धनुष इन्हे दिखा दीजिये । इससे इनकी इच्छा पूरी हो जाएगी । फिर ये दोनों राजकुमार उस धनुष के दर्शन मात्र से संतुष्ट हो इच्छानुसार अपनी राजधानी को लौट जायेंगे । '
इस प्रकार कथा आगे बढ़ती है और राजा जनक धनुष के मिथिला में होने का सम्पूर्ण वृत्त्तांत भी सुनाते हैं । 
निमि के ज्येष्ठ पुत्र राजा देवरात को यह धनुष धरोहर के रूप में दिया गया था । कहा जाता है "पूर्वकाल में दक्षयज्ञ विध्वंश के समय परम पराक्रमी भगवान शंकर ने खेल -खेल में ही रोषपूर्वक इस धनुष को उठाकर यज्ञ-विध्वंश के पश्चात देवताओं से कहा -देवगण  ! मै यज्ञ में भाग प्राप्त करना चाहता था,किन्तु आप लोगों ने नहीं दिया । इसलिए इस धनुष से मै  तुम  सब के मस्तक काट डालूँगा ।यह सुनकर सभी देवता उदास हो गए और स्तुतु द्वारा शिव को प्रसन्न किया । प्रसन्न होकर शिव ने यह धनुष देवताओं को दे दिया । हे मुनिश्रेष्ठ ! यह वही धनुष -रत्न है जो मेरे पूर्वज महाराज देवरात के पास धरोहर के रूप में रखा गया था  ।  
एक दिन मै यज्ञ के लिए भूमिशोधन  करते समय खेत में हल चला रहा था । उस समय हल के अग्रभाग से जोती गई भूमि ( हराई या सीता )से एक कन्या प्रकट हुई । (हल द्वारा खींची गई रेखा ) से उत्पन्न होने के कारण उसका नाम सीता रखा गया । अपनी इस अयोनिजा कन्या के बारे में मैंने यह निश्चय किया किजो अपने पराक्रम से इस धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा देगा ,उसी के साथ मैं इसका विवाह करूँगा । 
कई राजा मिलकर मिथिला में आये और पूछने लगे कि सीता को प्राप्त करने के लिए कौन सा पराक्रम निश्चित किया गया है । मैंने  उनके समक्ष यह शिवजी का धनुष रखवा दिया ,पर वे सब उसे उठाने या हिलाने में भी समर्थ ना हो सके । मेरे द्वारा तिरस्कार हुआ मानकर वे सब राजा मिथिला को सब और से घेर कर पूरे एक वर्ष तक पीड़ा देते रहे  । हमारे युद्ध के सब साधन नष्ट हो गए  । इससे मुझे बड़ा दुःख हुआ । तब मैंने तपस्या द्वारा देवताओं को प्रसन्न करके चतुरंगिणी सेना प्राप्त की । फिर तो वे सभी राजा जो बलहीन थे अपने अपने मंत्रियों सहित विभिन्न दिशाओं में भाग गए । जनक ने मुनि से कहा कि -
यद्यस्य धनुषो रामः कुर्यादारोपणं मुने । 
सुतामयोनिजां सीतां दद्यां दशरथेरहम् ॥ (बालकाण्ड ६६ । २६ )
अर्थात  यदि श्रीराम इस धनुष पर प्रत्यञ्चा  चढ़ा दें तो मैं अपनी अयोनिजा कन्या सीता  को इन दशरथकुमार के हाथ में दे दूँगा ।
तत्पश्चात् बालकाण्ड के ६७ वे सर्ग में श्रीराम के द्वारा धनुर्भंग तेहा राजा जनक का विश्वामित्र की आज्ञा से राजा दशरथ को बुलाने के लिए मंत्रियों को भेजने का प्रसंग वर्णित है ।  

Friday, December 4, 2015

रामायण : रम्या रामायणी कथा

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः |
यत् क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम् ||(वाल्मीकिरामायण ,बालकाण्ड २. १५ )

संस्कृत - साहित्य की परम्परा में महर्षि वाल्मीकि को आदि कवि कहा जाता है । वैदिक साहित्य के बाद लौकिक साहित्य का आरम्भ क्रौञ्च वध की उस घटना से माना जाता है ,जिसके अनुसार तमसा नदी के तट पर किसी निषाद (बहेलिये) ने काममोहित क्रौञ्च पक्षी के युगल में से एक पर प्राण घातक प्रहार किया था और उसके दुःख से उद्विग्न महर्षि वाल्मीकि के मुख से एक छंद फूट पड़ा था ,जो भारतीय साहित्य चेतना में इतनी गहराई से अंकित हो गया कि उस सन्दर्भ को महाकवि कालिदास से लेकर वर्त्तमान युग के साहित्यकार तक सभी निरंतर दोहराते रहे हैं ।
भारतीय साहित्य में रामकथा का व्यापक महत्त्व है । राम कथा ने न केवल लोक को तो निरंतर आलोकित किया ही गया है बल्कि एशियाई  साहित्य एवं संस्कृति के विकास में बी ऐतिहासिक भूमिका का निर्वाह किया
 है ।आदिकवि वाल्मीकि से लेकर वर्त्तमान काल तक सतत परिवर्तनशील सामाजिक परिवेश तथा जीवन और संसार के परिवर्तित होते हुए सन्दर्भ श्रीराम कथा के परिप्रेक्ष्य में नए सिरे से व्याख्यायित होते रहे हैं । विश्व साहित्य के  इतिहास में  राम कथा को जितनी लोकप्रियता प्राप्त हुई है ,वह अद्वितीय है ।
बालकाण्ड के प्रथम सर्ग का आरम्भ -
तपः स्वाध्यायनिरतं तपस्वी वाग्विदां वरम् |
नारदं परिपप्रच्छ वल्मिकिर्मुनिपुङ्गवम् ||
को न्वस्मिन् संप्रतंलोके गुणवान् कश्च वीर्यवान् |
 धर्मज्ञश्च क्रतज्ञश्च सत्यवाक्यो दृढव्रतः ||
श्लोक से हुआ  है |