Wednesday, January 27, 2016

सीता स्वयंवर

क्या इस तरह से हमारे धर्मग्रंथों में जो लिखा है उसे तोड़ मरोड़ कर दिखाना उचित है । वाल्मीकि रामायण में तो(सीता स्वयंवर) ऐसी सभा का वर्णन है ही नहीं ,जैसी आजकल प्रसारित हो रहे 'सिया के राम
(SIYA  KE  RAM ) में दिखाई गई । आज की पीढ़ी जब इन धार्मिक कथाओं को देखती है तो वह इसे ही सत्य मानती है (जो की परिवर्तित करके दिखाया जा रहा है) । वाल्मीकिरामायण के बालकाण्ड के ६६ वे सर्ग में जब विश्वामित्र हजारों वर्षों की तपस्या के पश्चात् राजा जनक का आमंत्रण पाकर श्री राम और लक्ष्मण  सहित जनक के महल में जाते हैं । तब विश्वामित्र  राजा  जनक से कहते हैं कि -
पुत्रौ दशरथस्येमौ क्षत्रियौ लोकविश्रुतौ । 
द्रष्टुकामौ  धनुःश्रेष्ठं यदेतत्वयि तिष्ठति ॥ 
एतद् दर्शय भद्रं ते कृतकामौ नृपात्मजौ । 
दर्शनादस्य धनुषो  यथेष्टं प्रतियास्यतः ॥ (५-६ )
अर्थात 'महाराज ! राजा दशरथ के ये दोनों पुत्र विश्वविख्यात क्षत्रिय वीर हैं और आपके यहाँ जो श्रेष्ठ धनुष रखा है ,उसे देखने की इच्छा रखते हैं । आपका कल्याण हो ,वह धनुष इन्हे दिखा दीजिये । इससे इनकी इच्छा पूरी हो जाएगी । फिर ये दोनों राजकुमार उस धनुष के दर्शन मात्र से संतुष्ट हो इच्छानुसार अपनी राजधानी को लौट जायेंगे । '
इस प्रकार कथा आगे बढ़ती है और राजा जनक धनुष के मिथिला में होने का सम्पूर्ण वृत्त्तांत भी सुनाते हैं । 
निमि के ज्येष्ठ पुत्र राजा देवरात को यह धनुष धरोहर के रूप में दिया गया था । कहा जाता है "पूर्वकाल में दक्षयज्ञ विध्वंश के समय परम पराक्रमी भगवान शंकर ने खेल -खेल में ही रोषपूर्वक इस धनुष को उठाकर यज्ञ-विध्वंश के पश्चात देवताओं से कहा -देवगण  ! मै यज्ञ में भाग प्राप्त करना चाहता था,किन्तु आप लोगों ने नहीं दिया । इसलिए इस धनुष से मै  तुम  सब के मस्तक काट डालूँगा ।यह सुनकर सभी देवता उदास हो गए और स्तुतु द्वारा शिव को प्रसन्न किया । प्रसन्न होकर शिव ने यह धनुष देवताओं को दे दिया । हे मुनिश्रेष्ठ ! यह वही धनुष -रत्न है जो मेरे पूर्वज महाराज देवरात के पास धरोहर के रूप में रखा गया था  ।  
एक दिन मै यज्ञ के लिए भूमिशोधन  करते समय खेत में हल चला रहा था । उस समय हल के अग्रभाग से जोती गई भूमि ( हराई या सीता )से एक कन्या प्रकट हुई । (हल द्वारा खींची गई रेखा ) से उत्पन्न होने के कारण उसका नाम सीता रखा गया । अपनी इस अयोनिजा कन्या के बारे में मैंने यह निश्चय किया किजो अपने पराक्रम से इस धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा देगा ,उसी के साथ मैं इसका विवाह करूँगा । 
कई राजा मिलकर मिथिला में आये और पूछने लगे कि सीता को प्राप्त करने के लिए कौन सा पराक्रम निश्चित किया गया है । मैंने  उनके समक्ष यह शिवजी का धनुष रखवा दिया ,पर वे सब उसे उठाने या हिलाने में भी समर्थ ना हो सके । मेरे द्वारा तिरस्कार हुआ मानकर वे सब राजा मिथिला को सब और से घेर कर पूरे एक वर्ष तक पीड़ा देते रहे  । हमारे युद्ध के सब साधन नष्ट हो गए  । इससे मुझे बड़ा दुःख हुआ । तब मैंने तपस्या द्वारा देवताओं को प्रसन्न करके चतुरंगिणी सेना प्राप्त की । फिर तो वे सभी राजा जो बलहीन थे अपने अपने मंत्रियों सहित विभिन्न दिशाओं में भाग गए । जनक ने मुनि से कहा कि -
यद्यस्य धनुषो रामः कुर्यादारोपणं मुने । 
सुतामयोनिजां सीतां दद्यां दशरथेरहम् ॥ (बालकाण्ड ६६ । २६ )
अर्थात  यदि श्रीराम इस धनुष पर प्रत्यञ्चा  चढ़ा दें तो मैं अपनी अयोनिजा कन्या सीता  को इन दशरथकुमार के हाथ में दे दूँगा ।
तत्पश्चात् बालकाण्ड के ६७ वे सर्ग में श्रीराम के द्वारा धनुर्भंग तेहा राजा जनक का विश्वामित्र की आज्ञा से राजा दशरथ को बुलाने के लिए मंत्रियों को भेजने का प्रसंग वर्णित है ।  

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